Monday, April 20, 2015

डॉ अम्बेडकर को हम महिलाओ का सलाम

14 अप्रैल पूरे देश में बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है .दक्षिण भारत से लेकर उत्तेर भारत तक और पश्चिम भारत से पूर्वी भारत में डॉ आंबेडकर जयंती की रोनक देखते ही बनती है . डॉ अम्बेडकर के बारे में बात करे तो अक्सर बकात दलित वर्गों की आ जाती है यंहा तक की बात आरक्षण पर आ कर रुक जाती है आज़ाद भारत में   डॉ अम्बेडकर को  दलितों का मसीहा कहा जाता है .जबकि डॉ अम्बेडकर के समस्त कार्यो का मूल्यांकन  करे तो हम पाएंगे कि वे एक कुशल अर्थशास्त्री थे , समाजवैज्ञानिक थे, कानून विशेषज्ञ  थे मजदुर नेता थे , पत्रकारिता में प्रखर विद्वान् और महिलाओ के अधिकार के चैम्पियन थे
डॉ अम्बेडकर एक प्रबुद्ध भारत का सपना देखते थे अतः उन्होंने सविधान के पहले पन्ने पर यानि की प्रस्तावना में सभी जातियों के स्त्री पुरुषो को बराबरी दी . स्त्री-पुरुष असमानता व छुआछूत की समाप्ति करके समानता की गारंटी दी. गरीब आमिर , मजदुर मालिक के बीच सामाजिक समानता का सूत्रपात किया . वर्ण वर्ग जाति लिंग भेद रहित  सभी को वोट देने का अधिकार दिया.
डॉ अम्बेडकर ने महिलाओ को समानता दिलाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की . युनिफाम सिविल कोड  से ले कर हिन्दू कोड बिल  को लाने  में उन्होंने पुरजोर लगाया कि  महिलाओ को समाज में बराबरी का हक्क मिले उन्हें पति और पिता की सम्पति में भाइयो के साथ सम्पति का हक्क मिले . पति की सम्पति में  वैवाहिक सम्पति  में हक्क मिले जिससे पति और ससुराल ली गुलामी से वो मुक्त हो कर अपना जीवन स्वाभिमान से जी सके
हिन्दू कोड बिल ने महिलाओ के भरण पोषण,  तलाक लेना न देने के साथ साथ पति की हैसियत के हिसाब से खर्चे का अधिकार दिया . भारतीय सविधान  ने  औरत को दत्तक पुत्र पुत्री गोद लेने व अपनी सम्पति संरक्षण का अधिकार दिया. अपनी मर्जी से जीने ओर  अपनी आजादी से आने जाने का हक्क दिया.  महिला कर्मचारियो को  प्रसूति अवकाश और मजदुर औरतो को पुरुष मजदूरो के समक्ष  न्यनतम वेतन व  समान वेतन समान घंटे काम का अधिकार मिला. इतने सब अधिकार महिलाओ को बिना लड़े .. बिना संघर्ष किये  आराम से मिल गये

डॉ अम्बेडकर की जयंती को दलित महिलाए एक महिला के रूप में डॉ अम्बेडकर के महिलाओ के प्रति योगदान को याद करती है . वे डॉ अम्बेडकर की जीवनी पढ़ कर उनके संघर्षो के साथ स्वम् को जुड़ा देखती है. और दलित स्वम् को एक इंसान के  रूप में अपने मानवीय हक्को को पाने व भोगने के लिए डॉ अम्बेडकर के योगदान को नहीं भूलते .
महिलाओं के अधिकारों के चैम्पियन डॉ अम्बेडकर को याद न करने वाली महिलाओ के बारे में क्या कहा जाये ?
उनके  शोध ..विमर्श और लेखन में डॉ अम्बेडकर और उनकी विचारधारा कंही दूर तक नहीं  आते तभी तो नयी पीढिया अब सवाल करने लगी है की महिला आन्दोलन डॉ आंबेडकर को क्यों नहीं  जनता?  

Saturday, April 18, 2015

कोशल्या बैसंत्री एक लेखिका – एक एक्टिविस्ट

लेखिका कौशल्या बैसेंत्री डॉ अम्बेडकर के छात्र आन्दोलन की सचिव व् युवा नेत्री कौशल्या नंदेश्वर  थी . १९४२ के महिला अधिवेशन में उन्होंने सक्रिय भूमिका अदा की थी इनके माँ –पिता नागपुर की एक्सप्रेस मील में मजदूरी करते थे. पिता मशीनों में तेल डालने का  काम तो माँ इसी मील में धागा बनाने वाले विभाग में कार्यरत्त थी.  इनके माता पिता बहुत ही जीवट एवं मेहनती थे. माता-पिता को 13 सन्तान- 10 लडकिया और तीन लड़के हुए जिनमे से 6 लडकिय और एक लड़का ही जीवित बचा
कौशल्या बैसेंत्री बचपन से ही डॉ अम्बेद्गर के विचारो से प्रभावित थी. उनकी थोड़ी शिक्षा महारष्ट्र की महान सोशलवर्कर जाई बाई चोधरी के स्कूल में हुई. गरीबी और समाजकार्य से जुड़ जाने के कारन आसपास की लडकियो की अपेक्षा इनकी शादी थोड़ी सी देर से हुई. इनकी शादी कोर्ट में बिहार के युवा देवेन्द्र बैसेंत्री से हुई , देवेन्द्र बैसेंत्री भी डॉ अम्बेडकर के समय में छात्र आन्दोलन में सकीय थे. दोनों की पहचान ही आपसी शादी का आधार बनी. पति के साथ रहते हुए कुछ ही समय में आपसी मतभेद होने के कारन इन्हे काफी दिक्कते उठानी पड़ी.
कौशल्या बैसेंत्री घर के काम में न केवल दक्ष थी बल्कि वे कलात्मक प्रवृतिकी थी अत  गृहसज्जा में बहुत ही कुशल थी. पढना लिखना,  संगीत, पेंटिंग सब उनकी रूचिकर दुनिया का हिस्सा था. महिलाओ के अधिकारों को लेकर भी बहुत सम्वेदनशील थी. वे मुनिरका डी डी ए फ्लैट में रहती थी पास में ही मुनिरका गाव भी था  ठीक गाव के पीछे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय भी था. जब भी जेएनयू में कोई प्रोग्रम होता तो उनेह बुलाया जाता था. मुनिरका गाव की महिलाओ के लिए उन्होंने कोशिश की कि वंहा सिलाई सिखाई जाए क्योंकि वो स्वम् सिलाई कढ़ाई जानती थी और इस हुनर के  साथ क्राफ्ट काम से महिला उद्यम शुरू हो सकता था. वह जल्द ही बंद हो गया परन्तु ये सब उन संगदिल पुरुषो की वजह से हुआ जो मान कर चलते है कि औरत की जिन्दगी घर की चार दिवारी के पीछे है. बैसंत्री जी ने पहल करके  भारतीय महिला जग्रिति परिषद मनाई जिसका उद्देश्य था महिला अधिकारों के साथ साथ दलित महिलाओ को मुख्यधारा के साथ जोड़ना .इस संगठन ने दलित महिलाओ के सवाल मुख्यधारा के महिला आंदोलनों के समक्ष रखे.
कौशल्या बैसेंत्री एक जागरूक नागरिक थी और लोगो को जगाने और उनकी जानकारी बदने के लिए मरठी से अनुदित करके  हिंदी में कई लेख लिख कर समाज को दिए  उन्होंनेलेखिका उर्मिला पवार की एक कहानी हिंदी में अनुवाद की जो हंस में छपी . पत्रकारिता पर शोधात्मक कार्य कर रहे डॉ श्य्राज सिंह बैचैन को मदद की . अस्पृश्यता पर लेख लिखे. मुक्ताबाई के कामो पर लेख लिखा.वह एक अच्छी सामाजिक कार्य करता थी साथ ही अच्छी इंसान भी.अपनी आत्मकथा दोहरा अभिशाप लिखा जिसमे उन्होंने दलित स्त्रियों की जिजीविषा पर रौशनी डाली
महिलाओ की प्रेरक थी. भारतीय महिला जाग्रति परिषद् में बहुतसी महिलाओ को एकत्र किया और समाज के मुद्दों को उनेह समझती व प्रतिनिधित्व देती . दलित महिलाओ के मुद्दे पर वो अनुसूचित जाति आयोग  के अध्यक्ष  रामधन से मिली, राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी से मिली .. उम्र बड़ने और घर में बेटे की बहु और पति से सहयोग न मिलने के कारण मजबूरन उनेह अपनी बेटी सुजाता के घर रहना पड़ा. पति द्वारा घर में जगह और खर्चे की कोताही करने पर पति पर भरण पोषण और घर में रहने की जगह के लिए केस दायर किया जिसमें उनकी बेटी  और सबसे छोटे बेटे ने मदद की. कोर्ट से खर्चा मिलने लगा पति की मृत्यु के बाद सबसे छोटा बीटा आतिश बैसेंत्री उनेह अपने साथ मद्रास ले गये. मद्रास में अपने बेटे बहु के साथ रही परन्तु धीरे धीरे उनकी सुनने की शक्ति क्षीण होती गयी और साथ ही याद रखने की क्षमता भी
जीवन के अंतिम दिनों में वो अपने सबसे छोटे बेटे आतिश जिनेह वो बाबा कहती थी के साथ रही और २४ जून 2012 में उन्होंने अपना पार्थिव शारीर छोड़ दिया.

( ये लेख  कौशल्या बैसेंत्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप को  शिवाजी विश्वविद्यालय , कोल्हापुर में बीए भाग ३ में लगाने के लिए प्रा गोरख बनसोडे के सवालों के जबाब ले लिए लिखा गया है)

उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक  दोहरा अभिशाप.  भूमिका  मस्तराम कपूर
प्रकाशक  परमेश्वरी प्रकाशन , प्रीत विहार डेल्ही -110 92  मूल्य 140 रूपये
ISBN 978-81-88121-98-

                                                                               .................................by Rajni Tilak

Friday, April 3, 2015

दलित साहित्यिक कार्यक्रमों में दलित लेखिकाओ का प्रतिनिधत्व

दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट फैकल्टी  22 नम्बर कमरे में  दो दिन का राष्ट्रिय संगोष्ठी में दलित समाज के आधारभूत प्रश्न : विशेष सन्दर्भ साहित्य, शिक्षा और संस्कृती , डॉ श्योराज सिंह बैचैन के संयोजन में हुआ . 30 -31 मार्च को हुए इस कार्यक्रम में काफी जाने पहचाने व्यक्ति शामिल हुए. मै आमंत्रित नहीं थी फिर भी अपनी व्यस्तता से कुछ समय निकाल कर गयी. साथ में डॉ सुशीला तान्क्भोरे  भी थी वो एक दिन पहले ही हमारे घर नागपुर से आई थी. डॉ रेखा रानी और शरण कुमार लिम्बाने जी से भी मिलना था  और सोचा बाकियों से भी मुलाक़ात हो जाएगी. उसी दिन २ बजे एक स्तर में अध्यक्षता के लिए भी जाना था अतः जल्दी जल्दी मिल कर निकल जाना था.  डॉ रेखा रानी तो नहीं आई और निम्बाने जी भी नहीं दीखे. साहित्यकार कलि चरण स्नेही ,डॉ नामदेव, मंच पर थे. दिसोदिया और अनुरागी भी नजर आई . बहुत से छात्रो ने हमे पहचान लिया था. शोध छत्रो सर हॉल भरा हुआ था.
हमने पत्रिका ली और पढ़ कर देखा तो हैरान थी .. वैसे  हैरान  होना  तो नहीं चाहिए था . कुल वक्ता अध्यक्षता करने वालो में 44 लोग थे जिनमे मात्र ३ लेखिकाए ही थी जिनमे से एक अनुपस्थित थी . डॉ श्योराज सिंह बैचैन ने इस गोष्ठी में नवोदित और वरिष्ठ लेखको को बुलाया . दलित पत्रिकाओ के सम्पादकों को भी आमंत्रित किया. लेखिकाओ को क्यों नहीं आमंत्रित किया ? क्या इसलिए डॉ धर्मवीर को बुलाया था . या इस लिए की वो आज भी लेखिकाओ की गिनती में नहीं मानते ? हालाँकि रजनी अनुरागी का भाषण देते हुए एक फोटो फेस बुक पर शेयर किया गया है तो इसका मतलब उन्होंने उसे आमन्त्रण दिया होगा परन्तु पत्रिका में उसका नाम नहीं था.
मै जो सवाल उठा रही हु क्या वो गलत सवाल है? क्यों हम  डॉ आंबेडकर को इतना गाते है?  जब  हम महिलाओ को प्रतिनिधित्व तक देना नहीं चाहते. दलित  आदिवासी अल्पसंख्यक और पिछड़े समाज में स्त्री विरोधी मानसिकता कब बदलेगी ?  /